Text of RM’s speech at the NDTV Defence Summit-2024 in New Delhi

 

NDTV द्वारा आयोजित, Defence conclave में, आप सबके बीच उपस्थित होकर मुझे बड़ी खुशी हो रही है।

 

साथियों, पिछले कुछ समय में NDTV ने जिस तरह से जनता के बीच में अपनी पहुंच बनाई है, जिस तरह से जनता में इसकी विश्वसनीयता बढ़ी है, उसके लिए NDTV network बधाई का पात्र है। आपके माध्यम से मैं देश की जनता के एक बड़े हिस्से से आज रूबरू हो रहा हूं, इसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूं।

 

साथियों, हम सब जानते हैं, कि मीडिया, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जानी जाती है। मीडिया, सरकार और जनता के बीच एक कड़ी का काम करती है; यह दोनों को एक दूसरे से जोड़े रखती है। इसलिए आजादी के बाद से ही, हमारी executive, legislature, और judiciary, तीनों ने ही मीडिया की स्वतंत्रता पर जोर दिया। मीडिया की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा। जिसका परिणाम यह है, कि आज हमारे यहां एक vibrant media culture है; और NDTV, उस vibrant media culture को represent करता है।

 

साथियों, इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में यदि इमरजेंसी के काले अध्याय को छोड़ दिया जाए, तो मीडिया की स्वतंत्रता पर कभी भी कोई प्रतिबंध नहीं देखा जा सकता। वह इमरजेंसी का ही दौर था, जहां मीडिया की स्वतंत्रता को कुचला गया, जहां अखबारों में छपने से पहले articles पढ़े जाते थे। जहां अखबारों की headlines, एक पार्टी के headquarter से तय होती थी। जहां सरकार का विरोध करने पर, पत्रकारों को जेल भेज दिया जाता था, उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। उस काले दौर को यदि छोड़ दिया जाए, तो चाहे हमारी सरकार रही हो, या फिर किसी और दल की सरकार रही हो, सबने इस देश में मीडिया की स्वतंत्रता को बरकरार रखा।

 

यह बातें मैं यहाँ इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि आप सब ने एक बात पर ध्यान दिया होगा, कि कुछ समय से मीडिया के ऊपर यह आरोप लगाया जाता है, कि वह निष्पक्ष न होकर, सत्ता के पक्ष में बात कर रही है; मीडिया सरकार की भाषा बोल रही है।

 

वैसे तो यह सारे आरोप निराधार हैं; फिर भी, इनके ऊपर मैं एक बात आपसे कहना चाहूंगा, कि सरकार और मीडिया, दोनों ही समाज के institutions होते हैं; दोनों ही समाज के हिस्से होते हैं। इसलिए जो social consensus है, जिन बातों पर समाज में मतैक्य है, जाहिर सी बात है, वह social consensus सरकार और media, दोनों की बातों में सामने आएगा।

 

इसे आप एक उदाहरण से समझें। आप अमेरिका को लीजिए। अमेरिका में, वहां की जनता ने, आज इस बात को acknowledge कर लिया है, कि अमेरिका की Global Position के लिए चीन का उदय खतरनाक है। अब ये बात जब समाज ने स्वीकार कर लिया है, तो ये बात अमेरिका की सरकार की policies में भी दिखती है। अमेरिका की सरकार अपनी Global Position के लिए, चीन को एक threat के रूप में देखती है।

 

अमेरिकी सरकार का यह stand, अमेरिका की मीडिया में भी दिखता है। अमेरिकन मीडिया के आप articles पढ़ें, news analysis देखें, तो वहां मीडिया चीन को, एक threat के रूप में देखती है। इसका अर्थ यह थोड़ी हुआ, कि अमेरिका की सरकार ने वहां की मीडिया पर control किया हुआ है। लोकतांत्रिक देशों में, चाहे वह अमेरिका हो, भारत हो, या यूरोप के देश हों, उनमें समाज जो सोचता है, जो समाजिक मतैक्य होता है, सरकार उसी दिशा में काम करती है, और प्राय: यही देखने को मिलता है कि सरकार की जो दिशा है, लगभग वही विचार मीडिया में भी परिलक्षित होते हैं। वही विचार वहां के लेखकों में परिलक्षित होते हैं; वहाँ के विचारकों में भी परिलक्षित होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है, कि वे लेखक, विचारक और मीडिया, सरकार की कठपुतली के रूप में काम कर रहे हैं। उनका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है। वह तो बस social consensus के हिसाब से कार्य कर रहे हैं।

 

साथियों, ठीक इसी प्रकार से माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में हमारी सरकार की कुछ policies हैं, जो यहाँ की मीडिया में reflect होती हैं। जैसे, यदि हमारी सरकार यह कहती है, कि हम भारत के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देंगे, ‘India First’ की बात करेंगे, तो इस बात को तो समाज ने स्वीकार ही किया है। यह तो समाज का ही consensus है। तो जाहिर सी बात है, कि ‘India First’ की भावना, मीडिया में भी reflect होगी ही। यदि हमारी सरकार भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था की बात करती है, तो यह बात मीडिया में भी रिफ्लेक्ट होगी ही। इसलिए आप देखें, जब भी कोई भ्रष्टाचारी पकड़ा जाता है, तो मीडिया उसे detailed coverage देती है। कारण साफ है, भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम, सामाजिक मतैक्य है। सरकार और मीडिया के साथ-साथ, मैं तो मानता हूँ, कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष भी एक सामाजिक संस्था है, जो social consensus को ईमानदारी से मुखरित करने में अपना योगदान देती है। इस स्वरूप में, मैं विपक्ष का सम्मान करता हूँ। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है, कि वर्तमान में विपक्ष, social consensus को सामने लाने की अपनी जिम्मेदारी का, पूरी तरह निर्वहन नहीं कर रही है। ऐसे में मैं कहूँगा, कि मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ी है।

 

 

कहने का अर्थ ये है कि साथियों, सरकार और मीडिया, दोनों ही समाज की बात करते हैं। दोनों ही समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। और जहां पर सामाजिक मतैक्य नहीं है, वहां मीडिया हमारी आलोचना भी करती है। और जब-कभी हमारी नीतियों की आलोचना होती है, तो उसे हम स्वीकार करते हैं, और उसे सुधारने का प्रयास करते हैं।

 

आलोचना को लेकर हमारा यह जो सकारात्मक रवैया है, यही कारण है कि हमारी आलोचना ज्यादा नहीं होती। इसका उदाहरण मैं आपको देता हूं। हम जब कोई scheme लागू करते हैं, तो मीडिया उस स्कीम के implementation को बड़ी गौर से follow करती है, और जहां भी उसमें कमी है, मीडिया तुरंत उसको highlight करती है। और जैसे ही मीडिया highlight करती है, हम उससे सीखते हैं, और उस स्कीम के implementation में सुधार करते हैं। जब हम अपने काम में सुधार ले आते हैं, तो मीडिया के द्वारा हमारी आलोचना बंद हो जाती है।

 

जैसे आप सभी किसी स्कूल में देखें, तो यदि कोई बच्चा शिक्षक के समझाने पर समझ जाता है, तो उसे अपनी छोटी गलतियों पर कम डांट पड़ती है, और यदि कोई बच्चा शिक्षक के समझाने पर भी नहीं समझता है, तो उसे ज्यादा डांट पड़ती है। मैं GST का उदाहरण आपके सामने रखना चाहूंगा । जब हमने GST अधिनियम लागू किया था, तो आप सब जानते हैं, कि वह भारत के taxation system का एक बहुत बड़ा change था, एक radical change था।

 

हमें GST का इससे पहले कोई अनुभव नहीं था। हमारे लिए वह एक नया प्रयोग था। इसलिए जब हमने GST को लागू किया, तो मीडिया ने उस scheme को बड़ी ही गंभीरता से follow किया, और जहां भी GST में कमी दिखती थी, मीडिया तुरंत उस चीज को highlight करती थी। social media पर campaign चलते थे। उन सारी चीजों को देखते हुए, हमारी सरकार तुरंत ही उन कमियों को analyze करके ठीक करती थी, और आज आप देखिए, कि GST एक  established system बन चुका है, जहां उसकी आलोचनाएं कम होती है, जहां उसकी कमियां न के बराबर दिखाई जाती हैं। मीडिया अब GST की आलोचना नहीं करती, बल्कि आए दिन record GST collection के आँकड़े पेश करती है। NDTV को मैंने बड़ी खुशी के साथ ऐसे आँकड़े प्रस्तुत करते देखे हैं।

 

तो साथियों, यह हमारे और मीडिया के बीच का एक ऐसा संबंध है, जहां मीडिया सरकार को उनकी कमियां गिनाती है, और सरकार उसे सुधारती भी है, क्योंकि हम दोनों ही समाज के institutions हैं। हम दोनों ही समाज के लिए काम करते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि भारत में इसी तरह से सरकार और मीडिया समाज के प्रतिनिधि के रूप में काम करते रहेंगे, तथा भारत के लोकतंत्र को और मजबूत करेंगे।

 

साथियों, अब मैं अपने मूल विषय पर आता हूं, जिसके लिए मुझे यहां आमंत्रित किया गया है। मैं भारत के रक्षा क्षेत्र के ऊपर आपसे कुछ चर्चा करूंगा।

 

साथियों, मैं अनेक मंचों पर कई बार जिक्र कर चुका हूं, कि भारत में जब 2014 में माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में हमारी सरकार आई, तो हमने रक्षा क्षेत्र को अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक रखा। हमने रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाया। इसके अलावा आप देखें, तो चाहे वह Department of Military Affairs की स्थापना हो, CDS के पद का सृजन हो, Positive indigenization list जारी करके हथियारों का निर्माण भारत में ही करने की बात हो, या फिर हथियारों के export की बात हो, हमने अनेक ऐसे कार्य किए, जो भारत के रक्षा क्षेत्र को मजबूत करते हैं। मैं समय-समय पर इसकी चर्चा करता रहा हूं। आज भी मैं इनकी चर्चा करूंगा, लेकिन इसके अलावा मैं एक विशेष बात पर आप सब का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा।

 

साथियों, defence sector में आत्मनिर्भरता को बढ़ाने का हमारा जो प्रयास है, military modernization पर जो हमारा ध्यान है, तथा भारत के रक्षा क्षेत्र को और सशक्त बनाने का जो हमारा प्रयास है, उसे मैं हमारी सरकार के ideological commitment में contextualize करने का प्रयास करुँगा।

 

जब हम यह कहते हैं, कि प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में सरकार आने के बाद, हमने military modernization पर ध्यान दिया, रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर ध्यान दिया, तो मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है, कि पहले की सरकारों ने रक्षा क्षेत्र की मजबूती पर ध्यान नहीं दिया। पहले की सरकारों ने भी रक्षा क्षेत्र पर ध्यान दिया है। उन्होंने भी अपने ढंग से देश की रक्षा व्यवस्था को मज़बूत करने के प्रयास किए। पर हमारे और उनके बीच बहुत बड़ा अंतर है; और वो बहुत बड़ा अंतर है, नजरिए का।

 

रक्षा क्षेत्र में भारत को सशक्त बनाने का जो हमारा नजरिया है, वह भारत की क्षमता पर विश्वास करने का है। लेकिन पुरानी सरकारों का जो नजरिया था, वह कहीं न कहीं संशयात्मक था। वह भारत की क्षमता पर शायद उतना विश्वास नहीं करते थे, जितना हमारी सरकार करती है। मैं इसका उदाहरण आपको देना चाहूंगा, कि रक्षा क्षेत्र में भारत को मज़बूत बनाने की दिशा में हमने जो सबसे बड़ा काम किया, वह रक्षा औद्योगिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने का था।

 

इसके कुछ प्रयासों पर मैं आप लोगों से चर्चा करूंगा। जैसे, हमने देखा, कि जो हमारी Ordnance factories हैं, वो उस पुरानी व्यवस्था में भी अच्छा काम कर रही थीं, लेकिन नए समय को देखते हुए, नई जरूरतों को देखते हुए, हमने Ordnance factories का Corporatisation किया, ताकि वह और ज्यादा technology friendly बन सकें, वह और ज्यादा output दे सकें, उनकी accountability बढ़ सके। और ऐसा नहीं है, कि हमने बिना सोचे-समझे उनका Corporatisation किया। हमने उनके employees के हितों का भी ध्यान रखा, और राष्ट्रीय सुरक्षा का भी ध्यान रखा।

 

इसके अतिरिक्त, रक्षा औद्योगिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए, हमारी armed forces ने पाँच Positive indigenization lists जारी की, जिसके तहत 509 ऐसे systems और platforms चिन्हित किये गए हैं, जिनका निर्माण अब भारत की धरती पर ही होगा। साथ ही, हमने Defence Public Sector Undertakings के लिए भी चार Positive indigenization lists जारी की। इसमें 4,666 ऐसे LRUs आदि चिन्हित किए गए, जिनका निर्माण हमारे देश में ही, और हमारे देशवासियों के ही हाथों होगा।

 

साथियों, जब हम स्वदेशीकरण की ओर बढ़ रहे थे, तो उस समय हमनें domestic companies के हितों का भी ध्यान रखा। इसीलिए सरकार ने defence capital procurement करने के लिए रक्षा बजट का 75 प्रतिशत, domestic companies से procurement के लिए reserve किया है। यह domestic companies को promote करने की दिशा में हमारा महत्वपूर्ण प्रयास है।

 

Domestic companies को promote करने के जो हमारे प्रयास हैं, उन प्रयासों का ही परिणाम है, कि 2014 के आसपास जहाँ हमारा domestic defence production लगभग 40 हजार करोड़ रूपये था, वहीं आज हमारा domestic defence production लगभग 1 लाख 10 हजार करोड़ रूपए के रिकॉर्ड आंकड़े को पार कर चुका है, और यह लगातार आगे बढ़ रहा है।

 

हमनें defence technology में self-reliance को promote करने के लिए, Technology Development Fund, यानि TDF की भी स्थापना की। TDF के माध्यम से यह प्रयास हो रहा है, कि futuristic एवं cutting edge technology का development अब भारत में ही हो।

 

हमने Make in India, और Defence Industrial Corridors जैसे initiatives के माध्यम से यह सुनिश्चित किया, कि हम अपनी सेनाओं की जरूरत के लिए अत्याधुनिक हथियार भारत में ही निर्मित करें, और यदि संभव हो तो हम उसे निर्यात भी करें। आज आप देख सकते हैं, कि हम अपने इन प्रयासों में सफल हुए हैं। इसे इस आँकड़े से समझा जा सकता है, कि आज से 9-10 साल पहले defence equipment का export, जहाँ कुल हजार करोड़ रुपए सालाना नहीं हुआ करता था, वह आज लगभग 16 हज़ार करोड़ रुपए सालाना हो गया है।

 

हमने innovative ideas लाने वाले युवाओं को प्रोत्साहित किया। मैं यहाँ विशेष रूप से innovations for defence excellence, यानि iDEX का जिक्र करना चाहूँगा। iDEX को हम defence sector में innovation, तथा technology को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लाए हैं। इसके अंतर्गत हम innovative solutions लाने के लिए challenge post करते है, और जो startups select होते हैं, उनको हम 1.5 करोड़ रुपए तक की वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं।

 

मैंने कई मंचों पर, इससे पहले भी जिक्र किया है, कि सरकार, युवाओं के innovative ideas को promote करने के लिए committed है। यदि हमारे युवा एक कदम आगे बढ़ेंगे, तो सरकार 100 कदम आगे बढ़कर उनकी मदद करेगी। और यह सिर्फ कहने की बात नहीं है, हमने अपने कार्यों से इसे सिद्ध भी किया है। हम iDEX से आगे बढ़ते हुए iDEX prime ले आए, और 1.5 करोड़ की मदद को हमने बढ़ाकर 10 करोड़ तक किया है। यह हमारे युवाओं की मेहनत का ही परिणाम है, कि iDEX को Prime Minister innovation award से सम्मानित किया गया।

 

हमारी DPSUs, और services ने जितने भी challenges दिए, हमारे युवाओं ने उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, और सफलतापूर्वक उन challenges को स्वीकार करके उसे अंजाम दिया। अब इस मुहिम में आगे बढ़ते हुए, हमने हाल ही में iDEX prime को भी upgrade करके ‘ADITI’ scheme को launch किया, जहां हम अपने युवाओं को, तथा उनके startups को, उनकी innovation में मदद के लिए पूरे 25 करोड़ तक की मदद provide करेंगे।

 

 

साथियों, यह सारे काम जो मैंने अब तक गिनाए, इन कामों को करने के पीछे कुछ कारण थे। जब भी बात technology की आती है, तो विकासशील देशों के पास दो तरह के रास्ते होते हैं। एक innovation का और दूसरा imitation का। कई सारे अर्थशास्त्री यह मानते हैं, कि आमतौर पर जो देश विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं, उनके लिए imitation कम expensive होता है। यानी कि जो भी technology, अमेरिका, जापान व यूरोप के विकसित देशों में developed हो चुकी है, उन technologies को imitate करके विकासशील देश अपना विकास कर सकते हैं।

 

साथियों, मैं imitation को गलत नहीं कह रहा। यह हर विकासशील देश की, एक समय तक जरूरत होती है। जैसे, कई अर्थशास्त्रियों का यह मानना है, कि 19वीं शताब्दी में जब अमेरिका विकसित हो रहा था, तो उसने यूरोप से कई technologies imitate की। ठीक उसी प्रकार 20वीं सदी में चीन ने भी अमेरिका से बहुत सारी technologies imitate की। हम दूसरे विकसित देशों से technology imitate तभी करते हैं, जब हमें यह पता होता है, कि हमारी क्षमता अभी innovation की नहीं है, हमारा human resource अभी उस level तक नहीं पहुंचा, कि हम innovation के माध्यम से स्वयं नई technological development को हासिल कर पाएँ।

 

और यह कोई बहुत गलत बात नहीं है। यदि आप दूसरे देशों से technology imitate करेंगे, तो भी आप अपनी पुरानी technology से तो आगे बढ़ेंगे ही। ऐसा लगभग सभी विकासशील देश करते हैं। लेकिन इस imitation के साथ समस्या यह है, कि आप प्रायः इसके आदी हो जाते हैं। आप अपनी human resource के development पर उतना ध्यान नहीं देते। इसके अलावा आपको जो technology हासिल होती है, वह दोयम दर्जे की हासिल होती है। दोयम दर्जे की technology की वजह से आप developed country से हमेशा 20-30 साल पीछे ही रहते हैं, चाहे वह रक्षा का क्षेत्र हो, या फिर civilian sector हो।

 

लेकिन इससे भी बड़ी, जो दूसरी परेशानी है, वो यह होती है कि हमारे राष्ट्रीय आत्मविश्वास का ह्रास होता है। हम हमेशा एक technology follower बनकर रह जाते हैं। यह जो technology imitate करने की मानसिकता है, यह सिर्फ technology के क्षेत्र में ही नहीं रह जाती, बल्कि यह हर क्षेत्र में आ जाती है। यह follower बनने की मानसिकता आपकी संस्कृति में आ जाती है, यह आपके विचारधारा में आ जाती है, यह आपके साहित्य में, रहन-सहन में, नैतिकता में, यहाँ तक कि आपके दर्शन में भी आ जाती है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने इसी follower mentality को गुलामी की मानसिकता कहा है।

 

जैसे, यदि आप किसी 15 साल के बच्चे से पूछें कि विश्व का महानतम लेखक कौन है, तो वह बच्चा विलियम शेक्सपियर कहेगा। उस बच्चे के दिमाग़ में कालिदास, सुब्रमण्यम भारती या रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे भारतीय लेखकों का ध्यान शायद ही आए। अब तो स्थितियाँ फिर भी बदल रही हैं, पर कुछ वर्ष पहले तक ऐसा ही था। मेरे कहने का अर्थ यह है, कि imitation किसी राष्ट्र की मानसिकता पर भी बहुत गहरा असर छोड़ती है। एक तरह से गुलामी की मानसिकता आ जाती है, जिसका असर कई generations तक रहता है।

 

साथियों, ऐसे में सरकार का, media का, बल्कि प्रबुद्ध वर्ग का भी यह कर्तव्य हो जाता है, कि वह राष्ट्र को गुलामी की मानसिकता से बाहर निकालें। जैसा कि मैंने अभी कहा, माननीय प्रधानमंत्री जी ने लाल किले की प्राचीर से, देश से यह आह्वान किया था, कि हमें न सिर्फ गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलना है, बल्कि अपनी राष्ट्रीय विरासत पर गर्व भी महसूस करना है। प्रधानमंत्री जी ने सिर्फ यह कहा ही नहीं, बल्कि उन्होंने अपने काम से इस दिशा में कदम भी बढ़ाया। इसके लिए नई राहें बनानी होती हैं। लीक पर चलकर यह उद्देश्य नहीं पाया जा सकता है।

 

साथियों, लीक पर चलना, मतलब बने बनाए रास्ते पर चलना होता है। लीक पर चलने के बारे में जब आप दिल्ली-मुंबई के educated बच्चों से पूछेंगे तो वो आपको Robert Frost की poem के बारे में बताएंगे, कि Two roads diverged in a wood, and I,

I took the one less travelled by,

And that has made all the difference.

 

यह निश्चित रूप से एक अच्छी कविता है। पर यही अच्छी कविता है, ऐसा नहीं है। ऐसी कविताएं भारत में भी बहुत सी हैं। मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं कि,

लीक पर वे चलें, जिनके

चरण दुर्बल और हारे हैं।

हमें तो जो, हमारी यात्रा से बने

ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

 

ऐसे में साथियों, सिर्फ robert frost की कविता को जाना जाए, और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविताओं को न जाना जाए, तो कहीं न कहीं यह हमारे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान से समझौता करने जैसा है। हमें दूसरों के बारे में जानना है, लेकिन उसके साथ-साथ हमें अपने राष्ट्रीय विरासत को भी जानना है, और उस पर गर्व महसूस करना है।

 

इसलिए हमने आत्म सम्मान की बात की। हमने जब आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ाया, तो हमने भारतीय industries पर विश्वास किया, हमने भारतीय युवाओं पर विश्वास किया, हमने भारतीय कम्पनियों पर विश्वास किया, हमने भारतीय entrepreneurs पर भरोसा किया। हमने L&T पर भरोसा किया, हमनें TATA पर विश्वास किया, हमने Mazagon Dock Shipbuilders Limited पर भरोसा किया, हमने Hindustan Aeronautics Limited पर विश्वास किया।

 

हमने इन कंपनियों के लिए एक अच्छा environment प्रदान किया, हमने अपने युवाओं पर भरोसा किया, उनकी इनोवेशन को बढ़ावा दिया, उनके लिए iDEX लेकर आए। जैसा कि मैंने अभी आपसे जिक्र किया, हमारे युवा यदि एक कदम चले, तो सरकार 100 कदम आगे बढ़कर उनके साथ खड़ी रही, यदि वह 100 कदम आगे बढ़े, तो सरकार 1000 कदम आगे बढ़कर उनकी मदद करेगी।

 

साथियों, युवाओं पर, या कहें हमारी नई पीढ़ी पर भरोसा करने की बात मैं कोई हल्के में नहीं कर रहा, बल्कि यह बेहद गंभीरता और जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं। आप सभी यहाँ प्रबुद्ध वर्ग के लोग बैठे हुए हैं, आप सब जानते हैं कि 2014 से पहले भारत में सिर्फ defence sector ही नहीं, बल्कि हमारे इतिहास को देखने का नज़रिया भी काफी अलग हुआ करता था। इतिहास को देखने का जो नज़रिया था, तथा भारत को represent करने वाले महानतम शासकों को देखने का जो नज़रिया था, वो नज़रिया anglicized elite class decide करता था।  Anglicized elite class का अर्थ आप सभी जानते हैं, कि हमारा elite class पाश्चात्य संस्कृति में इतना डूबा हुआ था, कि वह भारत के अपने इतिहास को भी western lens से देखता था। जाहिर सी बात है, इस anglicized, तथा westernized elite class का भारत की जनता से, और भारत की संस्कृति से संबंध टूट सा चुका था।

 

इसलिए, भारतीय इतिहास के उन शासकों को अच्छा माना गया, जिन्होंने बाहरी मूल्यों का अनुकरण किया तथा भारत की सांस्कृतिक चेतना को चोट पहुंचाई। उन शासकों को भारत में glorify किया गया। वहीं दूसरी ओर, भारतीय जनमानस ने western lens पर आधारित इस छद्म चेतना को कभी स्वीकार नहीं किया।

 

यह जो elite consensus था, इसे भारत की आम जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया। भारत के वो गाँव, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस देश की आत्मा कहते थे, उन गॉंवों में रहने वाले लोगों ने कभी भी इस तरह की सोच को समर्थन नहीं दिया। गांव में रहने वाले लोग मैकाले की पाश्चात्यवादी सोच से कभी प्रभावित नहीं हुए। मैकाले की सोच से anglicized elite class के लोग ही प्रभावित हुए।

 

मैकाले ने जब यह कहा कि “एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की अलमारी, भारत के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर होगी”, तो यह कथन उसकी विकृत सांस्कृतिक सोच को दर्शाता था। अब इस सोच के अंतर्गत यदि कोई भारतीय युवा शिक्षा ग्रहण करेगा तो उस सोच का उत्तराधिकारी किस प्रकार का होगा, उससे आप क्या उम्मीद करेंगे?

 

यदि आप IITs या IIMs का भी निर्माण करेंगे, तो ऐसी सोच रखने वाले युवा का पहला स्वप्न यही होगा, कि शिक्षा ग्रहण करके उसे देश के बाहर जाकर नौकरी करना है। क्योंकि IITs और IIMs से पढ़ा भारतीय बच्चा, जिसके अंदर भारतीय क्षमता है, भारतीय talent है, वह दिखने में भारतीय है, बोलने में भारतीय है, लेकिन चूँकि उसकी ideological training, anglicized elite class ने यह कहकर की है,  कि भारत एक दोयम दर्जे का देश है, तो जिस पीढ़ी ने ऐसी शिक्षा को ग्रहण किया है, वह तो यही सोचेगा कि उसे विदेश जाकर नौकरी करनी है। इस ideological basis में एक radical change की आवश्यकता थी, जो हमने किया।

 

जैसे आप देखिए, कि 2014 में जब हम सरकार में आए, तो सरकार में आने से पहले हम किसी सुषुप्ता अवस्था में नहीं थे, बल्कि हम आजादी के बाद से ही एक आंदोलन के रूप में कार्य कर रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय से ही, भारत को देखने का, भारत के इतिहास को देखने का, हमारे युवाओं को देखने का, व हमारी क्षमताओं को देखने का हमारा एक दूसरा नजरिया था। वह नजरिया कभी खत्म नहीं हुआ। इसलिए जब हम सरकार में आए, तो हमने उस नजरिए को social consensus बनाया।

 

हम भारत के उस विश्वास के प्रतिनिधि हैं, जो भारत अपने सप्तर्षियों की विद्वता में विश्वास करता है। हम भारत के उस विश्वास के नायक हैं, जो भारत आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे अपने mathematicians की परम्परा पर गर्व करता है। हम भारत की चिकित्सा व्यवस्था में उस विश्वास के प्रतीक हैं, जो भारत आचार्य चरक और आचार्य सुश्रुत जैसे अपने महर्षियों की विरासत पर गर्व करता है। इसलिए हमने इस विश्वास को सरकार में आने के बाद और मजबूत किया।

 

हमनें अकबर की बजाय, महाराणा प्रताप को सम्मान दिया, हमने औरंगजेब की बजाय छत्रपति शिवाजी महाराज को सम्मान दिया, हमने मैकाले की दी गई Indian Penal Code को नकार कर ‘भारतीय न्याय संहिता’ को introduce किया। हमने इस देश की संस्कृति और सांस्कृतिक क्षमता में अपने युवाओं का विश्वास दृढ़ किया। फिर जब हमारा विश्वास मजबूत हुआ, तो देश के IIMs भी बदले, देश के IITs भी बदले, और देश के युवाओं का नज़रिया भी बदला। वह आत्मविश्वास भारतीय जनता में था, लेकिन westernized Elite class  की वजह से वह मुखर रूप में सामने नहीं आ पा रहा था। हमने उस आत्मविश्वास को जगाया। कुल मिलाकर हमने भारत में भारतीयता को पुनः प्रज्वलित किया।

 

साथियों, हमारे इस विश्वास से न सिर्फ इतिहास को देखने और समझने के नजरिये में परिवर्तन हुआ, बल्कि IITs, IIMs के साथ-साथ इस देश की दूसरी prestigious universities में पढ़ने वाले talents का स्वप्न भी बदला, जहां वह दूसरे देशों में जाकर नौकरी करने की बजाय, भारत में ही startups and innovation के माध्यम से इस देश की economy में योगदान देने की ओर आगे बढ़े।

 

तो साथियों, जो हमारा यह वैचारिक विश्वास था, इसमें सिर्फ रक्षा क्षेत्र और technology की सफलता ही नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक सफलता है। इस वैचारिक सफलता के ऊपर मैं एक दूसरे तरीके से बात करना चाहूँगा।

 

आप सभी पढ़े–लिखे लोग हैं, दुनिया जहान को समझने वाले लोग हैं। आप सब जानते हैं, कि दुनिया का कोई भी देश जब किसी दूसरे देश की ओर देखता है, तो जाहिर सी बात है कि वह देश, दूसरे देश की सेना को बहुत ज्यादा पसंद नहीं कर सकता है। जैसे, आप किसी देश के नागरिक हैं, तो क्या आपको किसी पड़ोसी देश की या किसी ताकतवर देश की सेना अच्छी लगेगी? जाहिर सी बात है, नहीं लगेगी, क्योंकि वह सेना आपकी सुरक्षा के लिए नहीं है, और कभी न कभी भविष्य में ऐसा हो सकता है, कि वह सेना आपकी सुरक्षा के लिए खतरा भी बन जाय। इसलिए सेनाओं के प्रति जो प्रेम होता है, वो सिर्फ अपनी सेना से होता है, सेनाओं के प्रति जो गौरव आता है, वो सिर्फ अपनी सेना से आता है, जो लगाव होता है, वो अपनी सेना से आता है।

 

ठीक इसी तरह, क्या हम भारत की सेना का सशक्तिकरण, किसी विदेशी perspective से कर सकते हैं? एक विदेशी perspective से यदि भारत की सेना का मूल्यांकन किया जाय, तो एक विदेशी, भारतीय सेना को एक necessary evil कहेगा। इसी westernized elite ने भारत के लिए सैन्यबल के स्थान पर नैतिक बल का एक शिगूफा छोड़ा।

 

लेकिन ऐसे लोग ये बात भूल जाते हैं, कि भारत की संस्कृति के ध्वजवाहक प्रभु श्री राम हैं, जो नैतिकता और आध्यात्मिकता के प्रतीक तो हैं ही, लेकिन साथ ही साथ भगवान राम का साम्राज्य भी “अ-योध्य” है, उनका बाण भी रामबाण है, जो अमोघ है। भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही, लेकिन इसके साथ ही वो इस धरती पर अधर्म के नाशक भी हैं। वो शस्त्र और शास्त्र ज्ञान, दोनों के धारक हैं।

 

इसलिए भगवान राम के विस्तार के रूप में, भारतीय संस्कृति को आप देखें, तो आपको भारत की सैन्य शक्ति और हमारी आध्यात्मिकता के बीच में कोई विरोधाभास नहीं, बल्कि पूर्ण तारतम्य दिखता है। जब आप भारत को भारत के नजरिए से देखेंगे, अपनी सेना को भारतीय नजर से देखेंगे, तो हर नागरिक को अपने देश की सेना पर गर्व होता है, क्योंकि सेना उस नागरिक की सुरक्षा के लिए होती है। इसलिए हमने भारतीय सेना के उस गर्व को, उसके सम्मान को भी बढ़ावा दिया। हमने national war memorial की स्थापना की, हमने अपने veterans का सम्मान किया, हमने अपने पूर्व सैनिकों के लिए One Rank One Pension को लागू किया।

 

साथियों, अंत में मैं यही कहना चाहूंगा, कि भारत की रक्षा व्यवस्था इसलिए मजबूत हुई, क्योंकि हमने रक्षा व्यवस्था के साथ-साथ भारतीयता पर भी फोकस किया। हमने रक्षा व्यवस्था को न सिर्फ मजबूत किया, बल्कि उसे भारतीयों की दृष्टि के अनुसार मजबूत किया। इसका परिणाम है, कि आज न सिर्फ भारतीय रक्षा व्यवस्था मजबूत है, बल्कि भारत भी मजबूती के साथ वैश्विक पटल पर उभर रहा है। और वह दिन दूर नहीं जब भारत न सिर्फ विकसित राष्ट्र के रूप में सामने आएगा, बल्कि हमारी सैन्य शक्ति दुनिया की सर्वोच्च सैन्य शक्ति बनकर उभरेगी।

 

अंत में मैं एक बार फिर से आप सभी का आभार व्यक्त करता हूं, कि आपने मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया।

 

मैं इस कार्यक्रम की सफलता की कामना करते हुए अपना निवेदन यहीं पर समाप्त करता हूं।

आप सबका बहुत-बहुत धन्यवाद